अगर समझा पाती तुम्हे
के यह दूरी कितनी खलती है मुझे
तो तुम शायद इतने नाराज़ न होते ...
रुस्वियाँ कम भिखरती
अगर तुम्हे समझा पाती के
तुम्हारे नज़दीक रहने से
ज़िन्दगी खुशनुमा लगती है
अगर समझा पाती तुम्हे
के सूरज का ढालना ...
तुम्हारे बिना उतना मनन को भाता नही
तो शायद तुम यूं नाराज़ न होते
फरवरी की सर्दिऊँ में अक्सर मेरी
कांपती उन्गलीयाँ तुम्हारे स्पर्श को तरसती है
तो तुम यूं नाराज़ न होते
जो तुम्हारी नजरें नहीं हो पास तो कुछ
अधूरा सा लगता है श्रृंगार…
समझाया कुछ तुमने हममे भी होता
के तुम्हारी खामोशी में
हमारे साथ रहने के अफ़साने हैं तो
शायद यह दूरी इतनी न खलती
न जलता मेरा मनं...
अगर तुमने एहसास दिलाया होता के
मेरी पलकों की नामी तुम्ही बातोंगे
उलझे लफ़्ज़ों को जो तुमने समझा होता तो
इतने खफ्फा न होते...
हारे होंगे हम कुछ इस कारोबार में
क्यूंकि तुम्हारे जीत की दुआ मांग बैठे थे!!
आज दूरीयां इतनी हैं .. कुछ बिखरे उजले सपनो को
समेटने की कोशिश करती हूँ
जो तुमने हाथ बताया होता तो
आज शायद हम साथ होते!!